भक्ति एक है, इसके रूप अनेक-1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा.
बीकानेर। भक्ति एक है, इसके रूप अनेक हैं। अनेक रूपों में एक रूप माता-पिता के प्रति भक्ति का भाव होना चाहिए। जिनके अंदर यह भाव होते हैं, वह अपने माता-पिता को साता पहुंचाते हैं। जिन लोगों में यह भाव नहीं होते वह उन्हें साता (सुख) नहीं पहुंचा सकते। माता-पिता की सेवा से साता वेदनीय कर्म का बंध होता है। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने ये विचार व्यक्त किये। महाराज साहब ने फरमाया कि एक विचारक ने कहा है- मां से बढक़र दुनिया में कोई हमदर्द नहीं, पिता से बढक़र दुनिया में कोई हमसफर नहीं, मां हमारे लिए जितनी हमदर्द होती है, उतना इस दुनिया में और कोई नहीं होता, यह निश्चित बात है। कोई माने या ना माने यह अलग बात है।
*गृहस्थी की सार्थकता क्या है...?*
आचार्य श्री ने बताया कि एक शब्द में कहें तो गृहस्थी की सार्थकता सेवा है। जिस संतान के मन में यह भाव होते हैं, वही संस्कारी होते हैं। जिनके मन में सेवा के भाव हैं, वह संसारी गृहस्थ जीवन में भी महान आत्मा है, संत है, ऐसे लोगों पर देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन बंधुओ, आजकल भक्ति क्यों उठती जा रही है। आज की शिक्षा में विकार आ गया है। बच्चे माता-पिता के साथ रहना नहीं चाहते, महानगरों में देखा है, मां-बाप को बच्चे वृद्धाश्रम में छोड़ जाते हैं। माता-पिता को फालतू समझते हैं। म.सा. ने कहा बंधुओ, यह याद रखो आज का बच्चा, कल का युवा है, आज का युवा कल प्रोढ़ भी होगा। इसलिए जैसे संस्कार आप अपने भीतर पालोगे, वैसे ही संस्कार आगे तिरोहित होंगे। इसलिए मैं कहता हूं जो अपने उपकारी माता पिता को साता पहुंचाते हैं, उन्हें इस संसार में क्या नहीं मिलता...?, इसलिए समर्पण भाव से, श्रद्धा के साथ सेवा करनी चाहिए, उन्हें सुख पहुंचाना चाहिए।