आखिर कब तक छले जाते रहेंगे युवा।
उच्च शिक्षित चपरासी, कम पढ़े-लिखे कुर्सी पर।
रामचंद्र कह गए सिया से, ऐसा कलयुग आएगा, हंस चुगेगा दाना, कौआ मोती खाएगा। यही हो रहा है। बारहवीं पास बाबू बन जाते हैं और ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, एम.फिल., पीएचडी या तो चपरासी बने हुए हैं या प्राइवेट स्कूल-कॉलेज या किसी दुकान में काम कर रहे होते हैं। इसे हमारे लोकतंत्र की विफलता कहें या शासन तंत्र या फिर हमारी चयन प्रणाली की कमजोरी। हकीकत यही है कि उच्च से उच्च शिक्षा की डिग्रियां महज कागज का टुकड़ा बनकर रह गई हैं। क्या फायदा है ज्यादा पढ़ने-लिखने से। बी.एड. एम.एड., पीएच.डी, एम. फिल., नेट, सेट, डी. लिट्. करके भी हमारे युवा-नौजवान कौनसा तीर मार पा रहे हैं। बेचारे हाथों में डिग्रियों का पुलिंदा थामे दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे हैं। कई-कई डिग्रियां होने के बाद भी नौकरी के लिए परीक्षाएं देनी पड़ती हैं, तो फिर यही सवाल उठता है कि आखिर इन डिग्रियों का क्या महत्व है। क्यों नहीं इन डिग्रियों को ही चयन प्रक्रिया का पैमाना या मापदंड बनाया जा सकता है। परीक्षा-दर-परीक्षा का सिलसिला आखिर कब तक झेलेंगे या फिर परीक्षा देते ही रहेंगे। कोई तो ऐसी शिक्षा प्रणाली बनाई जाए, जिसे पाते ही युवा हाथों को काम मिल जाए। युवाओं का भविष्य कहीं तो निश्चित हो। आखिर कब तक युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ होता रहेगा। अच्छी शिक्षा पाने के बाद भी अंधकार के बीच युवा कब तक अपने भविष्य का उजाला तलाशते रहेंगे। यदि कोई भी सरकार रोजगार की गारंटी नहीं दे सकती है, तो फिर प्री-परीक्षाएं कराकर बी.एड., एम.एड., नेट, सेट, पीएच.डी आदि कराना बंद क्यों नहीं कर देती है। भर्ती और परीक्षा एजेंसियों के दफ्तरों पर हमेशा के लिए ताले क्यों नहीं लटका देती है। परीक्षा फीस के नाम पर लूट बंद क्यों नहीं की जाती है। आखिर कब तक युवा बेरोजगार ठगा जाता रहेगा। भर्ती परीक्षाओं का बिगड़ैल रूप यह भी है कि इनमें अनेक योग्यताधारी तो बेचारे मुंह ताकते रह जाते हैं और अयोग्य जोड़-तोड़ कर या किस्मत का साथ पाकर नौकरी लग जाते हैं। कुछेक योग्यताधारी सरकारी नौकरी पाते भी हैं तो बड़ी जद्दोजहद के बाद। अनेक युवा तो भर्ती परीक्षा पास करने के बाद भी नौकरी पाने के लिए संघर्ष करते हैं, जिसका ताजा उदाहरण पिछले दिनों जयपुर में स्वास्थ्य भवन के सामने युवाओं का मुर्गा बनकर प्रदर्शन करना है। यही नहीं, कुछ भर्तियों के सफल अभ्यर्थियों का आए दिन प्रदर्शन होता रहता है। सांसद, विधायक, मंत्री, पार्षद, मेयर, नगर परिषद सभापति, नगर पालिका अध्यक्ष बनने के लिए महज दसवीं-बारहवीं पास योग्यता होनी चाहिए, तो फिर क्यों सरकारी नौकरी के लिए शैक्षणिक के साथ-साथ प्रशैक्षणिक योग्यताएं मांगी जाती हैं। किसी आयोग, निगम, बोर्ड या स्वायत्तशासी संस्थान में अध्यक्ष और सदस्य बनाने के लिए कोई चयन प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है तो फिर क्यों सरकारी नौकरी के लिए भर्ती परीक्षाएं व इंटरव्यू कराए जाते हैं। इन सब पहलुओं का तोड़ क्या हो सकता है, यह संसद और विधानसभा में बैठकर पंचायत करने वाले सफेदपोश नीति निर्माताओं के लिए सोचने का विषय है। भाजपा हो या कांग्रेस, सत्ता में आने के बाद सबका रवैया एक जैसा हो जाता है। पेपर लीक मामले में सत्तारूढ़ कांग्रेस के लोग मुंह सिले बैठे हैं और भाजपाई गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं। जब भाजपा सत्ता में होती है तो भाजपाइयों के मुंह पर फेविकोल लग जाता है और कांग्रेसी गला फाड़ते हैं। अभी चूंकि कांग्रेस सत्ता में है, तो विपक्ष भाजपा को मुद्दा मिल गया है। यह सब राजनीति और सत्ता की लड़ाई का खेल है।
प्रेम आनन्दकर-अजमेर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चिन्तक हैं।