आज भी प्रासंगिक है महात्मा गांधी का आर्थिक मॉडल- प्रोफेसर डॉक्टर अजय जोशी
आज भी प्रासंगिक है महात्मा गांधी का आर्थिक मॉडल-
प्रोफेसर डॉक्टर अजय जोशी-आर्थिक चिन्तक-विचारक
महात्मा गांधी एक महान चिंतक,विचारक और महानायक थे उन्होंने वेद, पुराण, गीता, रामायण आदि जैसे हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया साथ ही बहुत से विदेशी विद्वानों के जीवन दर्शन और विचारों को भी जांचा परखा। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उनके विचार मौलिक थे। आर्थिक पक्ष मानव जीवन का महत्वपूर्ण अंग है इसलिए महात्मा गांधी अपने आर्थिक चिंतन को जीवन शैली के रूप में परिभाषित करते थे। पश्चिम के बहुत से अर्थशास्त्री अर्थशास्त्र के अलग-अलग सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं लेकिन महात्मा गांधी का मानना था अर्थशास्त्र में कोई सिद्धांत नहीं होता वरन यह जीवन जीने का एक तरीका है। उनका मानना था कि जो भी आर्थिक किया हो उसे मोटे तौर पर सत्य और अहिंसा की कसौटी पर कस कर उसकी जांच परख की जानी चाहिए। इस दृष्टि से ऐसी कोई भी आर्थिक गतिविधि जो सत्य और अहिंसा की कसौटी पर खरी नहीं उतरे उसे गांधीवादी आर्थिक क्रिया में शामिल नहीं किया जा सकता।
महात्मा गांधी अपने व्याख्यानों और आलेखों में आर्थिक चिंतन को कई उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया करते थे। उन्होंने आर्थिक गतिविधियों को मोटे तौर पर पांच प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट किया। इनको उन्होंने आदमखोर, लूटेरा, कारोबारी, गिरोहबंद और सेवा गतिविधि के रूप में वर्गीकृत किया। उनका मानना था कि चोर और डाकू भी आर्थिक क्रियाएं करते हैं लेकिन उनकी क्रियाएं आदमखोर गतिविधि है क्योंकि वे बिना कुछ काम किए धन दौलत प्राप्त करने के लिए आदमियों को मार डालते हैं। लुटेरे का उदाहरण देते हुए गांधी जी ने लिखा कि मान लीजिए कोई चुपके से आपकी जेब से पर्स निकाल कर धन प्राप्त कर रहा है तो लुटेरा है यद्यपि उसके द्वारा की जाने वाली यह क्रिया भी आर्थिक गतिविधि ही है। उनका मानना था कि किसान कारोबारी श्रेणी की गतिविधि करते हैं क्योंकि वे जमीन जोतते हैं, बीज बोलते हैं, कड़ी मेहनत करते हैं और उसका फल प्राप्त करते हैं।
महात्मा गांधी संयुक्त हिंदू परिवार को गिरोहबंद अर्थ नीति की मिसाल मानते थे। उनका मानना था कि परिवार का मुखिया और सभी भाई केवल अपने लिए नहीं वरन सारे खानदान के लिए कार्य करते हैं इसमें काम करने वाला व्यक्ति अपनी कमाई को अपनी व्यक्तिगत कमाई ना मानकर पूरे खानदान की मानता है। गांधी जी सेवा अर्थ नीति का सबसे उपयुक्त उदाहरण माँ को मानते थे। उनका मानना था कि माँ सभी बच्चों के लिए काम करती है लेकिन इसके बदले किसी पुरस्कार की कामना नहीं करती। वह यह मानती है कि सेवा ही उसका पुरस्कार है।
गांधी जी कहते थे कि जिस प्रकार यह सब बातें एक व्यक्ति, परिवार और समाज में लागू होती है उसी प्रकार राष्ट्रों में भी लागू होती है। उनका मानना था कि भारत की अंग्रेजों की गुलामी के दौरान अंग्रेजों की अर्थनीति को आदमखोर अर्थ नीति की श्रेणी में रखा जा सकता है। दूसरे देशों पर दबाव डालकर अपने आर्थिक हित साधने की अमेरिका की नीति को वे लूटेरा अर्थ नीति की श्रेणी में रखते थे। भारत की कृषि अर्थ नीति को वे कारोबारी अर्थ नीति की मिसाल के रूप में देखते थे गांधीजी तत्कालीन सोवियत संघ और नाजी जर्मन को गिरोह बंद अर्थ नीति का प्रतीक मानते थे। उनका कहना था कि सेवा अर्थ नीति की मिसाल किसी भी देश में नहीं मिलती। वे भारत की अर्थ नीति को सेवा अर्थ नीति की ओर अग्रसर करने का प्रयास करना चाहते थे।
आचार्य डॉ. जे. सी. कुमारप्पा ने महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों पर ”गांधियन इकोनॉमिक थॉट” नाम से एक पुस्तक लिखी। मुंबई के प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर सी. एन. वकील जो बंबई यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड सोशियोलॉजी के निदेशक थे,उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा कि ‘जहाँ तक आर्थिक विकास की बात है हमारे उपर असर दो चीजों का पड़ता है एक तो पश्चिमी विचारों का और दूसरा गाँधीजी के आर्थिक विचारों का। यदि सरकारें इन दोनों विचारधाराओं में सही ढंग से तालमेल नही बिठा पाए तो कई विसंगतियां उत्पन्न हो सकती है और हुई भी” इस पुस्तक में डॉ. कुमारप्पा ने गाँधी जी के आर्थिक चिंतन के कई पहलूओं व्याख्या की जिनमें अर्थ नीति का आधार,कृषि अर्थ नीति और ग्राम सुधार, कृषि से जुड़े काम धंधों,मिल वाली आर्थिक नीति,समाजवाद,साम्यवाद आदि शामिल थे।
महात्मा गाँधी अर्थ नीति को नैतिकता से अलग नही मानते थे। विदेशी विद्वान बिजनेस एथिक्स या व्यवसायिक नीतिशास्त्र के रूप में जिसको अलग से देखते हैं वह गांधीजी के विचार में नेतिकता ही है। उनका मानना था कि जिस गतिविधि में नैतिकता नहीं है वह कभी भी आर्थिक गतिविधि नहीं मानी जा सकती। आजकल जो व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व की बात की जा रही है और कंपनियों के लिए कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी कि जो अवधारणा कंपनी कानून में शामिल की गई है वह मूल रूप से महात्मा गांधी के व्यवसायिक नैतिकता की अधारणा का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है।
गांधीजी श्रम जो एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है उसको मानव जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। उन्होंने भगवत गीता के कर्मयोग सिद्धांत को अपने जीवन में उतार लिया था। उनका मानना था कि गीता के ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ सिद्धांत को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैंने टालस्टाय का ‘रोटी के लिए शारीरिक श्रम’ से संबंधित लेख पढ़ा। वैसे इससे पहले भी रस्किन का ‘अनटू दिस लास्ट’ पढ़ने के बाद श्रम के महत्व की पुष्टि हो गई। महात्मा गांधी ने श्रम के सिद्धान्त की पुष्टि गीता के तीसरे अध्याय में जहां यह कहा गया है कि “जो व्यक्ति यज्ञ किये बिना भोजन करता है, वह चोरी का अन्न खाता है।’’ इस सम्बन्ध में गांधी जी का मानना था कि यहां यज्ञ का आशय श्रम से ही है। यद्यपि आज के परिवेश में श्रम के आयाम बदल रहे है। शारीरिक श्रम की तुलना में मानसिक श्रम को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। गांधी जी का मानना था कि व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा हो उसे कुछ न कुछ शारीरिक श्रम अवश्य ही करना ही चाहिये। गांधी जी श्रम विभाजन सिद्धांत में मजदूरी के विभेद को उचित नहीं मानते थे उनका मानना था कि शारीरिक श्रम का पारश्रमिक मानसिक श्रम करने वालों की तुलना में कम नहीं होना चाहिये। इसीलिये वे तकनीकी विकास के संबंध में कहते थे कि तकनीकी विकास की तरफ मत भागो इससे पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि इसका गरीबों के रोजगार और जीवन स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उनका मानना था कि तकनीकी विकास से यदि बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती है तो उसको नहीं अपनाया जाना चाहिये।
गांधीजी रोजगारपरक विकास को अधिक महत्व देते थे। उनका मानना था कि देश के लोगों को रोजगार दिये बिना विकास का कोई मायने नहीं है। उन्होंने व्यापक रोजगार अवसर सृजित करने की दृष्टि से खादी और ग्रामोद्योगो को बढ़ावा देने की बात कही थी। हमने देखा भी कि खादी और ग्रामोद्योगों के माध्यम से गांव गांव और घर घर करोड़ों रोजगार के अवसर उत्पन्न हुए। बीच के वर्षों में लोगों का खादी के प्रति झुकाव कम हो गया था लेकिन अब खादी एक ब्राण्ड बन रही है। ‘खादी इण्डिया’ ब्राण्ड से खादी युवाओं में प्रचलित फैशन बनता जा रहा है। जिस खादी को महात्मा गांधी ने चरखे से सूत कात कर शुरु किया था आज वही खादी देश ही नहीं वरन् विदेशों में एक लोकप्रिय ब्राण्ड बन गई है।
गांधीजी के आर्थिक चिंतन को वामपंथी, दक्षिण पंथी, मध्यर्मागी,कम्यूनिष्ट या समाजवादी-पूंजीवादी विचारधाराओं में बंधना संभव नहीं है। परम्परागत समाजवाद में भी उनका विश्वास नहीं था उनका कहना था कि समाजवाद शब्द का शब्दकोष अर्थ देखने के बावजूद मैं उस स्थान से कतई आगे नहीं बढ़ा जहाँ मैं यह परिभाषा पढने से पहले था। आशय स्पष्ट है कि समाजवाद की प्रचलित अवधारणा उनके आर्थिक चिंतन का हिस्सा नहीं थी। कई विचारकों का मानना है कि गांधी एक सहज समाजवादी थे जिनका पूंजीवाद से कठोर विरोध नहीं था। उनका मानना था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि पूंजी निर्जीव है लेकिन पूंजीवादी सजीव है और उन्हें परिवर्तन हेतु तैयार किया जा सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए गांधीजी ने ‘ट्रस्टीशिप अवधारणा’ का प्रतिपादन किया। इस संबंध में उनका कहना था कि अमीर लोगों को समाज के भले के लिये अपनी संपत्ति ट्रस्ट में रखनी चाहिये। व्यापारियों को अपने उद्यम लाभ के लिये चलाने चाहिये लेकिन इनसे कमाया गया लाभ व्यक्तिगत लाभ के लिये नहीं बल्कि समाज के सभी वर्गों के लाभ के लिये होना चाहिये।
टाटा औद्योगिक समूह ने गांधीजी की इस विचारधारा को स्वीकार किया उन्होंने अपने लाभ को सभी शेयर धारकों के ट्रस्टीशिप में रखा। इसके स्वरूप को बदलकर इसकी मूल भावना के अनुसार कई पश्चिमी देशों के उद्योगपति कार्य कर रहे है। इन दिनों अमेरिका के उद्योगपतियों में एक शपथ लेने का प्रचलन बढ़ा है जिसे वे ‘द गिविंग प्लेज’ का नाम देते है इसके अन्तर्गत वे अपनी आधी से अधिक संपति दानार्थ दे देते है। प्रतिष्ठित निवेशक वारेन बफिट ने बिल गेट्स व कुछ अन्य अरबपतियों के साथ मिलकर यह कार्यक्रम शुरू किया जिसके अन्तर्गत अरबों खरबों रुपयों की सम्पति को दान करके समाज के हित के लिये लगाया जाता है। इस कार्यक्रम में 150 से ज्यादा अरबपति अपनी आधी संपति दान देने की प्रतिज्ञा कर चुके है। इनमें मार्क जकर बर्ग, विनोद खोसला, ऐलान मास्क, लैरी एलिसन और डेविड राकफेथर आदि प्रमुख है। भारत में भी नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी और शिव नाडेकर जैसे अरबपति इसी तरह से परोपकार के लिये खर्च कर रहे है। यह गांधीजी की ट्रस्टीशिप की अवधारणा की स्वीकारोक्ति ही है।
आज के परिवेश में एकबारगी हमें ऐसा लग सकता है कि गांधी जी का आर्थिक चिंतन प्रांसगिक नहीं है। उनके मूल विचार स्वदेशी, ग्राम स्वराज्य, कुटीर उद्योग, स्वरोजगार, श्रम का सम्मान, मशीनीकरण की बजाय मानव श्रम पर बल, व्यावसायिक नैतिकता आदि आज के परिवेश में अधिक उपयुक्त दिखायी नहीं जान पड़ते लेकिन उनकी प्रांसगिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता।
इन दिनों प्रचलित होने वाली अवधारणाएं जैसे आत्मनिर्भर भारत, वोकल फोर लोकल, मेक इन इण्डिया, मेक फॉर इण्डिया,स्किल इंडिया आदि के मूल में महात्मा गांधी का आर्थिक मॉडल ही है। इन सभी अवधारणाओं की सफलता भी गांधी जी के मूल चिंतन नैतिकता, सत्य, अहिंसा के प्रयोग से ही संभव है। इन सभी के क्रियान्वयन के किसी भी निर्णय को लागू करते समय समाज के अंतिम छोर पर खड़े गरीब व्यक्ति को ध्यान में रखना ही होगा तभी इनकी सफलता संभव है। महात्मा गांधी जी का आर्थिक मॉडल जब वो थे तब भी प्रासंगिक थे, आज भी है और भविष्य में भी रहेंगे चाहे समय काल और परिस्थिति के अनुरूप इनके स्वभाव और क्रियाचयन के तौर तरीकों में भले ही बदलाव आ जाये।
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