डॉक्टर्स-नर्सेज क्यों टूल बन रहे हैं राइट-टू-हैल्थ बिल के विरोध में? 



 

सरकार द्वारा प्रस्तावित राइट-टू-हैल्थ बिल का विरोध निजी अस्पतालों ने करते हुए अपने डॉक्टर्स को आगे कर दिया है। तर्क है कि इसे चिकित्सकों की राय के बगैर लागू किया जा रहा है और चिंता यह जताई जा रही है कि इससे निजी क्षेत्र में दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा जाएगी, जनता को परेशान होना होगा। इस संबंध में प्रदेश में आंदोलन शुरू हो गया है और मांग की जा रही है कि इसके स्थान पर राइट-टू-एक्सीडेंट ट्रीटमेंट बिल लाया जाना चाहिए।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने इस संबंध में प्रदेश भर में विरोध का स्वर बुलंद किया है। इस बीच प्राइवेट हॉस्पीटल्स एंड नर्सिंग होम्स सोसायटी ने भी सोमवार यानी आज निजी चिकित्सा संस्थानों को बंद रखने का आह्वान कर दिया है। लोकतंत्र में यह अधिकार सभी को है। आंदोलन करना या कि दबाव बनाकर सरकार से अपनी बात मनवाना, लेकिन बहुत सारे मामलों में यह देखने को आता है कि जब कमजोर नस दबती है, तब कुछ लोग एक होकर एकता का दम भरते हैं, ऐसे मामलों में अधिकांश बार ऐसा भी होता है कि जिन लोगों को एक हुआ दिखाया जाता है, वे भी वस्तुत: टूल ही होते हैं। इस आंदोलन के साथ भी ऐसी ही आशंका है।

दरअसल, इस आंदोलन को डॉक्टर्स कर रहे हैं जबकि डॉक्टर्स का इस बिल से किसी तरह का नुकसान नहीं है। देखा जाए तो यही तो शपथ उठाई थी उन्होंने। डॉक्टर्स तो बनते ही इस शपथ के साथ हैं कि वे मरीज मात्र की सेवा-सुश्रुषा करेंगे। नर्सिंगकर्मी भी इस आंदोलन में उतर आए हैं, जिनके लिए तो सेवा ही परमोधर्म है। ऐसे में अगर सरकार इस तरह का बिल ला रही है तो डॉक्टर्स या नर्सेज को खुशी होनी चाहिए कि उन्हें काम करने का अधिक अवसर मिलेगा। आम जन में उनके प्रति और अधिक विश्वास बनेगा। धरती का भगवान माने जाने वालों की फिर से प्रतिष्ठा होगा, लेकिन इन्हें यह समझ नहीं आ रहा है, कहना अतिशयोक्ति होगी।

दरअसल, राइट-टू-हैल्थ बिल निजी अस्पतालों की मनमानियों पर अंकुश लगाने का एक तरीका है, जिसमें डॉक्टर्स के पास पहुंचने से पहले ही मरीजों के परिजनों को औपचारिकताओं के नाम पर इतना परेशान कर दिया जाता है, वे निजी अस्पतालों में जाने से ही डरते हैं। अगर कोई मरीज निजी अस्पताल में पहुंच भी जाते हैं कि इलाज तक शुरू नहीं होता। यह बिल मोटे तौर पर निजी अस्पतालों पर यह शर्त लागू करेगा कि मरीज के आने के तुरंत बाद से इलाज शुरू हो, चाहे उसके पास फीस जमा कराने के लिए पैसा है या नहीं, उसकी अस्पताल में आने के बाद सांस नहीं उखडऩी चाहिए। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि मरीज के अस्पताल परिसर में पहुंचते ही उसे डॉक्टर्स के पास पहुंचाया जाए न कि पहले उसके परिजनों को अस्पताल की औपचारिकताओं में उलझाया जाए। इलाज शुरू हो जाए तो समानांतर दूसरी सारी औपचारिकताएं भी हो। परिजन इस बात के लिए चिंतित नहीं होने चाहिए कि निजी अस्पताल में जाने के बाद भी इलाज तक शुरू होगा तब फीस के रूप में एक मोटी रकम जमा करवानी पड़ेगी।

वस्तुत: यह तो मानवता है। किसी भी अस्पताल को खोलकर बैठने वाली कंपनी या ट्रस्ट का पहला कत्र्तव्य है कि वह अपने मानव-धर्म का पालन करे। इसमें इतना परेशान होने की बात ही नहीं है। दूसरी इससे डॉक्टर्स या नर्स को तो परेशान होने का सवाल ही नहीं उठता, क्योकि वे जब घर से निकलते हैं, तब ही यह तय करके निकलते हैं कि उन्हें मरीजों की सेवा करनी है। इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि मरीज कौन है, कहां से आया है, उसने फीस जमा करवाई है या नहीं। यह बिल तो सरकार अब लेकर आई है, डॉक्टर्स तो हमेशा ही इस बात के हामीदार रहे हैं। अगर नहीं रहते तो क्या वे यह पेशा चुनते?
बहरहाल, यह सारा आंदोलन निजी अस्पतालों के व्यापार में लगे हुए लोगों का है, जिन्होंने डॉक्टर्स को आगे करके अपना उल्लू सीधा करने की ठानी है। ऐसे में राइट-टू-एक्सीडेंट ट्रीटमेंट का सुझाव न सिर्फ अतार्किक है बल्कि संविधान की आत्मा के विरुद्ध भी है। सरकार को चाहिए कि वह आम जन के हित में राइट-टू-हैल्थ बिल लाने के प्रति अपनी संकल्पना को और दृढ़ करे। 

 हरीश बी. शर्मा-लेखक जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं। 

 


2023-01-24 19:56:05